रामलखन गुप्त, चाकघाट। मध्य प्रदेश में आम चुनाव के साथ ही लोकतंत्र मतदान का कारवां 17 नवंबर को गुजर गया। लोगों ने अपने प्रत्याशी के पक्ष में जोर-शोर से मतदान किया। इस बार महिलाओं ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। यह मतदान पूर्ण रूप से निष्पक्ष और स्वतंत्र रहा यह तो नहीं कहा जा सकता, किसी ने नशे की खुमारी में, तो किसी ने धन के प्रभाव में, तो किसी ने गद्दारी का चोला ओढ़ कर मतदान किया और कराया। फिर भी हो गया लोकतंत्र का यज्ञ ,पड़ गई मतों की आहुति। प्रत्याशियों के भाग्य बंद हो गए वोटिंग मशीन के यंत्रवत शिकंजे में।जो खुलेगा आगामी तीन दिसंबर को। किसके भाग्य में क्या है? बहुत से लोग कहते हैं कि प्रत्याशियों का भाग्य मत पटियों में कैद हो गया, लेकिन सच तो यह है जनता की आवाज कैद हो गई है लोकतंत्र के इस पावन मतपेटी में। 3 दिसंबर को जनता की वाणी मुखर होगी की किस प्रत्याशी के पक्ष में जनता की कितनी ताकत इकठ्ठी हुई है। कौन नेता जनता के ज्यादा करीब पहुंचा है । जनता का मत कितना स्वतंत्र है, कितना निष्पक्ष है, कहा नहीं जा सकता। मतदाता ने किस अभाव में, किस प्रभाव में, और कितना दबाव में मतदान किया यह तो वही समझ सकता है जिसने मतदान के लिए वोटिंग मशीन का बटन दबाया है। इस बार का चुनाव योजनाओं पर नहीं, व्यक्तिगत संबंधों पर नहीं, सरकारी घोषणाओं पर नहीं बल्कि क्षणिक प्रलोभन पर होने लगा है । वैसे भी इस अंचल में यह माना जाता है असली चुनाव का काम तो सरकारी प्रचार बंद होने के बाद शुरू होता है। “कनफुकवा प्रचार” जो मतदान के 48 घंटे पहले ही प्रारंभ होता है वह भारी उलट फेर कर जाता है । किसी को प्रत्याशी नहीं पसंद है तो किसी को दल नहीं पसंद। किसी को अपने भविष्य को देखते हुए दूसरे की विजय नहीं पसंद। इन सबके घालमेल के बीच संपन्न हो गया विधानसभा का चुनाव। क्षणिक आवेग में तो कहीं क्षणिक धन लाभ ने चुनाव के दूररगामी परिणाम को प्रभावित किया। किसी ने कहा था कि लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पाई। एक क्षण में ही मशीन की बटन दबा कर नई सरकार एवं जनमत के परिणाम का दृश्य 3 दिसंबर को सार्वजनिक हो जाएगा। किंतु मतदान रूपी लोकतंत्र के इस कारवां में ऐसे ऐसे भी दृश्य दिखे हैं जो यहां के लोगों के दिलों दिमाग में स्थापित हो जाएंगे कि भारत का लोकतंत्र कितना पवित्र कितना निष्पक्ष और कितना राष्ट्रीय चिंतन पर आधारित है। लोकतंत्र की स्थापना के बारे में यही कहा जाता है जब देश के 650 राजाओं ने भारतीय गणराज्य के प्रति भारतीय संविधान के लिए अपने राज्यों का विलन विलय किया था उसमें से कई नरेशों इस बात को उठाया कि जिस राज्य की प्राप्ति हेतु युद्ध के मैदान में अनेक वीर सैनिकों के सर काट लिए जाते थे ,अब वही राज्यसत्ता लोकतंत्र में हंसते-हंसते जनता की इच्छा पर एक दूसरे को सौंप दिया जाता है । यही है लोकतंत्र की मर्यादा, लेकिन मतदान में लोगों का मन किन प्रलोभनों से, किन परिस्थितियों में मतदान के पहले बदला जाता है अगर इसी विषय पर चिंतन किया जाय तो लोकतंत्र प्रलोभनों का शिकार होता नजर आने लगता है। अब निजी लाभ,व्यक्तिगत अस्मिता के आगे राष्ट्र की अस्मिता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो रहा है। और हम लोकतंत्र के पड़ाव पर, मतदान के मिले सुखद अवसर पर, कुछ पल के लिए बंद हुई आत्मा की आवाज को नहीं देख पा रहे । वक्त का कारवां गुजर रहा है और हम निज लाभ के प्रभाव में गुबार देखने लगे। लोकतंत्र के इस मंदिर में हम भावनाओं का उठते धुएं को बादलों में छिन्न-भिन्न होते देखते रहेंगे और कहेंगे कि क्या सोचा था क्या हो गया इस देश को। हमने 17 वर्ष पूर्व एक कविता लिखी थी :-
कि जनमत मौन बहा करता है, अंदर ही अंदर सब कुछ सहा करता है।
जनमत की वाणी नहीं होती, वह कर से करके दिखलाता है राजा को रंक बनाता है।।
मतदाता के रूप में लोकतंत्र के बढ़ते कारवां और उसके गुबार को भी देखते ही आ रहे हैं। अभी बहुत कुछ समय है आने वाली राष्ट्रीय चुनाव लोकसभा के लिए।फिर से एक अवसर आएगा इस देश के लोगों के सामने जब वे कारवां को देखे न कि गुबार को देखते रहें।