सरकार द्वारा जनता के लिए समय – समय पर विभिन्न योजाओं की सौगात दी जाती है। जिसके अंतर्गत कई बार स्वास्थ्य लाभ से जुड़ी योजनाओं का भी सृजन होता है। फिर चाहे वो आयुष्मान भारत हो या फिर सरकारी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बेहतर इलाज के लिए मिलने वाली मुफ्त दवाइयां हों। शुरू से ही सरकार द्वारा जनता के लिए जरुरी मूलभूत सुविधाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है बावजूद इसके बिचौलिए जनता को गुमराह कर अपना कमीशन निकाल ही लेते हैं। इस बंदरबांट में उनके मददगार सरकारी तंत्र से जुड़े मुलाजिम या फिर ठेकेदार कंपनियों के माध्यम से काम कर रहे मुलाजिम होते हैं। इस तरह की कई खबरें पहले ही कई समाचार पत्रों चैनलों के माध्यम से दिखाई जा चुकी है जहाँ सरकारी अस्पताल के चिकित्सक ही दूसरे निजी अस्पतालों में जाने के लिए मरीजों को सलाह देते हैं।
कमीशन के चक्कर में मरीजों और परिजनों को किया जाता है गुमराह
सरकार द्वारा संचालित की जा रहीं स्वास्थ्य सम्बन्धी विभिन्न योजनाओं के बावजूद सरकार के ही मुलाजिम सरकार से मोटी तनख्वाह लेने या मानदेय लेने के बाद भी अधिकत्तर मरीजों या उनके साथ आये उनके परिजनों को किसी निजी अस्पताल में ले जाने और इलाज कराने की सलाह देते हैं। भोले – भाले मरीज और परिजन डॉक्टर को भगवान मानते हैं इसलिए बिना शोर सराबे के बताई हुई अस्पताल में अपने मरीज को लेकर पहुँच जाते हैं जबकि सम्बंधित स्वास्थ्य कर्मचारी का फ़ोन मरीज से पहले ही निजी अस्पताल के जनसंपर्क अधिकारी या अन्य कर्मचारी को पहुँच जाता है और हिस्से की बात हो जाती है। चूँकि त्योंथर तहसील क्षेत्र उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का सीमावर्ती क्षेत्र है, जिसकी वजह से त्योंथर तहसील क्षेत्र के ज्यादातर मरीजों को सीमा पार उत्तर प्रदेश के निजी अस्पतालों में भी भेजा जाता है और मोटा कमीशन वसूला जाता है और कमीशन का यह खेल कई वर्षों से न जाने किसके संरक्षण में गुपचुप तरीके से फैलता ही जा रहा है और छोटी – मोटी बीमारी के लिए भी लोगों से हज़ारों रुपय वसूला जाता है क्यूंकि हिस्सेदार अब ज्यादा हैं।
सिर्फ अपने अस्पताल की जाँच पर जोर
सरकार द्वारा अब ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में तकनीक आधारित बहुत सारे आयाम और व्यवस्थाएं की जा चुकी है और कई सरकारी अस्पतालों में आम जाँच के साथ – साथ कुछ जटिल जाँच भी शुरू की जा चुकी है। बावजूद इसके मरीज जब सरकारी अस्पताल से निजी अस्पतालों में पहुँचता है तो उसको सबसे पहले पुनः विभिन्न जाँच के लिए कहा जाता है और जोर दिया जाता है कि मरीज उनके अपने अस्पताल में ही जाँच करवाए। जाँच के साथ – साथ उनके निजी दवाईखानों से ही दवाइयां भी दी जाती हैं मरीज को, जबकि प्रायः यह देखा गया है कि बाजार में संचालित अन्य दवाईखाना के अपेक्षा निजी अस्पतालों में चल रहे दवाईखानों कि दवाइयां मँहगी होती हैं। अब इन सबका भार मरीज और उनके परिजनों पर पड़ता है जबकि कमीशन का खेल लगातार चलता रहता है।
कई अस्पताल खुद बीमार
अस्पताल को लेकर स्वास्थ्य विभाग द्वारा ढेर सारे दिशा निर्देश हैं जबकि कई अस्पतालों द्वारा दिशा निर्देशों का पालन तो दूर कि बात ऐसे नियमों कि अनदेखी जमकर होती है बावजूद इसके आज तक ऐसे अस्पतालों में शासन – प्रशासन द्वारा शायद ही कभी कोई जाँच की गई हो। कई अस्पताओं के सामान्य कक्ष तो इतने छोटे और अव्यवस्थित होते हैं कि मरीजों का दम घुटता है जबकि अस्पताल और बिचौलिया का मीटर चलता ही रहता है। साफ सफाई कि अगर बात करें तो शायद ही कोई कोना हो जहाँ आम आदमी आराम से साँस ले सके। इतना सब होने के बावजूद भी परिजन इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते कि अपने अधिकार और हक़ के लिए खड़े हो सकें।
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य व्यवस्था फिसड्डी
सरकार स्वास्थ्य योजनाओं को लेकर चाहे जितनी और योजनाओं का सृजन कर दे लेकिन उनकी जमीनी हक़ीक़त किसी से छुपी नहीं है। एक तरफ खानापूर्ति के लिए कागजों में लगातार गलत जानकारियां दर्ज कि जा रहीं हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीण अंचल लगातार बीमारी का शिकार हो रहा है। कुछ क्षेत्र के मरीज तो ऐसे हैं कि सरकारी अस्पताल के चिकित्सक से ज्यादा तो गांव – मोहल्ले के झोला छाप चिकित्सकों पर भरोसा करते हैं। मतलब साफ है कि सरकार द्वारा आम लोगों के स्वास्थ्य के लिए सचांलित कि जा रही योजनाओं में भी बिचौलियों ने सेंध मर दी है। अब कमीशन खोरी में कितने सरकारी कर्मचारी या संविदाकर्मी शामिल हैं, यह तो जाँच के बाद ही सामने निकल कर आयेगा लेकिन अगर सरकारी और निजी अस्पतालों में औचक निरीक्षण हो तो परिणाम चौकाने वाले होंगे।