तिरुक्कुरल अनुवाद राष्ट्रीय कार्यशाला में विभिन्न भाषाओं के विद्वानों ने व्यक्त किए विचार


चाकघाट। (राम लखन गुप्त) केन्द्रीय शास्त्रीय तमिल संस्थान, चेन्नई की ओर से आयोजित तिरुक्कुरल अनुवाद राष्ट्रीय कार्यशाला के सप्तम दिवस में आयोजित चार तकनीकी सत्रों में आठ अलग-अलग भारतीय भाषाओं के विद्वानों ने अपनी-अपनी भाषाओं की सम्यक जानकारी देते हुए तिरुक्कुरळ की वर्तमान प्रासंगिकता एवं उपयोगिता को मुक्तकंठ से स्वीकृत करते हुए उसके क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद को मानव कल्याण का श्रेष्ठ कार्य बताया।

प्रथम सत्र के अध्यक्ष एवं मैथिली भाषा के विद्वान प्रोफेसर रामचंद राय ने भोजपुरी, बंगला, मैथिली आदि भाषाओं की प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए मैथिली भाषा की प्राचीनता एवं समृद्धि से परिचय करवाया। उन्होंने तिरुक्कुरळ को मानव मूल्यों का ग्रन्थ कहा। उन्होंने वर्तमान समाज मे व्याप्त जातीय वैमनस्य एवं भेदभाव को मानव समाज के लिए कलंक सदृश बताते हुए तिरुवल्लुवर, बुद्ध एवं कबीर जैसे संतों की शिक्षाओं को आचरण में उतारने का आह्वान किया।

इसी सत्र में बंगाली विद्वान डॉ. बी. नटराजन ने तमिळ एवं बंगाली भाषा की प्रकृति में भाषावैज्ञानिक समानता-असमानता का खुलासा करते हुए तिरुक्कुरळ के अनेक कुरळ एवं उनके संदेश को व्याख्यायित किया। उन्होंने तिरुक्कुरल को ज्ञान ग्रन्थ की संज्ञा देते हुए उसे आचरण में उतार कर जीवन को सार्थक बनाने का आह्वान किया।

द्वितीय सत्र में अध्यक्षता कर रही उड़िया विदूषी प्रो. गिरिबाला मोहंती ने तुरुक्कुरळ के उड़िया अनुवाद एवं उससे जुड़े अनुभव साझा किए तथा तमिळ छंद ‘कुरळ’ की रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि ईसा की प्रथम शताब्दी में इतने बड़े ग्रन्थ का सृजन एवं उसको लिपिबद्ध करना किसी आश्चर्य से कम नहीं है। इतने श्रमसाध्य सुकार्य को सम्पन्न करने वाले संत तिरुवल्लुवर का मानव कल्याणार्थ सृजित तिरुक्कुरळ ग्रन्थ न केवल भूत एवं वर्तमान वरन भविष्य में भी कभी अप्रासंगिक नहीं होगा।

द्वितीय सत्र में द्वितीय वक्ता के रूप में श्रीमती सुनीता दहाल ने तिरुक्कुरळ एवं नेपाली नीति साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया तथा बताया कि नेपाली और तमिल साहित्य, हालांकि अलग-अलग सांस्कृतिक और भाषाई पृष्ठभूमि से उत्पन्न हुए हैं, समृद्ध और विविध साहित्यिक परंपराएँ प्रदान करते हैं फिर भी इनके साम्य को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने कहा कि तमिल साहित्य दुनिया की सबसे पुरानी साहित्यिक परंपराओं में से एक है, इसके विपरीत, नेपाली साहित्य का लिखित इतिहास अपेक्षाकृत युवा है, जो प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में निहित है और मध्यकाल के दौरान महत्वपूर्ण रूप से विकसित हुआ है। उन्होंने तिरुक्कुरळ के नेपाली अनुवाद के उदाहरण प्रस्तुत किए।

तृतीय सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. राजगोपालन आचार्य ने वेद से वल्लूवर विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने शब्द निर्माण की प्रक्रिया को समझाते हुए कहा कि शब्द अचानक नहीं बनते वरन ध्वनि से वर्ण एवं वर्ण से सार्थक समूह बनकर शब्द का निर्माण होता है। उन्होंने वर्णमाला के एक-एक अक्षर के पीछे स्वतंत्र अर्थ होने की बात कही तथा कहा कि एक ही शब्द का देश एवं काल के अनुसार अर्थ बदल जाता है। प्रो. राजगोपालन ने धर्म शब्द की वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जैन साहित्य में प्रयुक्ति एवं अर्थ भिन्नता को समझाते हुए तिरुक्कुरळ के धर्म की व्याख्या की। उन्होंने कहा कि तिरुवल्लुवर ने तिरुक्कुरळ में धर्म की व्याख्या भारतीय विचार परंपरा के अनुरूप ही दी है।

इस सत्र में द्वितीय वक्ता के रूप में कच्छी भाषा की विदूषी जागृति संघवी* ने तिरुक्कुरल में जीवनशैली विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने ग्रन्थ के तीनों खंडों की विषयवस्तु में मानवीय जीवन शैली के तत्वों की तपास करते हुए एक श्रेष्ठ मनुष्य के निर्माण का मार्ग बताया। उन्होंने कच्छी भाषा के इतिहास, भाषाई प्रकृति एवं काव्यगत विशेषताओं की जानकारी दी तथा तिरुक्कुरळ के कच्छी अनुवाद की स्थिति से अवगत करवाया।

चतुर्थ सत्र की अध्यक्षता डॉ. अमानुल्लाह ने तिरुक्कुरळ अनुवाद की समस्याएं एवं समाधान* विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत करते हुए आर्यन एवं द्रविड़ भाषाओं की प्रकृति की तुलना की। उन्होंने गुलिस्तां एवं बोस्टन आदि ग्रन्थों से तिरुक्कुरळ का साम्य बतलाया। उन्होंने एक भाषा से दूसरी भाषा के अनुवाद की बाधाओं एवं उनके निवारण के संबंध में अपने अनुभव साझा किए।

अंतिम सत्र की द्वितीय वक्ता डॉ. सुषमा रानी राजपूत ने तिरुक्कुरळ के डोगरी अनुवाद पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया, जिसमें डोगरा प्रदेश एवं डोगरी भाषा क्रमशः भौगोलिक एवं व्याकरणिक विशेषताओं से रूबरू करवाया, वहीं तिरुक्कुरळ के पद्य के डोगरी काव्यानुवाद के विविध विषयी उदाहरण प्रस्तुत किए। (रामलखन गुप्त)


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