त्योंथर का इतिहास : आदिवासी शासन का प्रतीक है त्योंथर की कोलगढ़ी

कभी बघेल खण्ड की राजधानी रही रीवा क्षेत्र के ऐतिहासिक मंजूषे में सर्वाधिक ऐतिहासिक घरोहर यदि कहीं पर विद्यमान है तो वह हैं प्रयाग की सीमा से लगे वर्तमान रीवा जिले के त्येंथर क्षेत्र में। इस क्षेत्र में यत्र-तत्र बिखरी पुरा सम्पदा जिसमें शैलचित्र, शैलाश्रम, पाषाण खण्डित प्रतिमाएँ, मठ, गढ़ी, तालाब, एवं टीले आदि प्रमुख हैं। यह पुरा सम्पदा निर्विवाद रूप से यह सिद्ध करती है कि यह अंचल आदिकाल से ही मानव सभ्यता एवं समकालीन संास्कृतिक धरोहर का भी केन्द्र रहा है।

इस अंचल में शैव, शाक्त, एवं बौद्ध अनुयायिओं का एक साथ सामंजस्यपूर्ण विकास एवं विस्तार हुआ है। यही कारण रहा है कि इस अंचल में आदिवासी राजाओं का शासन होने की बात इतिहास के पटल पर आने लगी है। इस क्षेत्र में अनवरत बहने वाली तमसा एवं बेलन नदी का जल तथा यहाँ विद्यमान विन्ध्य पर्वत की श्रृखला आदि काल से ही मानव सभ्यता के संर्वधन एवं संरक्षण में सहायक सिद्ध हुआ है। यह क्षेत्र महाजनपदीय काल में चेदि राजवंश से भी शासित रही है। विन्ध्य पर्वत की तलहटी एवं तमसा नदी के तट पर बनी तहसील मुख्यालय त्योंथर की कोलगढ़ी जिसे मध्य प्रदेश शासन के वर्तमान मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह ने संरक्षित स्मारक घोषित किया है तथा मां के लिए राशि मंजूर की है। संभावना है कि इस कोलगाढी पुनर्निर्माण एवं सौन्दर्य कार्य के शुभारंभ हेतु मुख्यमंत्री जी का शीघ्र त्योंथर क्षेत्र का दौरा हो सकता है। यह बात महत्वपूर्ण है कि त्योंथर की यह कोलगढ़ी इस बात को सिद्ध करता है कि यहाँ कभी आदिवासी राजाओं ने भी राज्य किया था। त्योंथर के समीप स्थित ग्राम सोहागी (सोत्थवती), चिल्ला (चिलिका), सहिजवार (सहजातीय), अमिलकोनी (अतुल्य कोणीय) आदि बौद्ध के समय में विकसित नगर की श्रेणी में थे। यहाँ की पुरासम्पदा आज भी समकालीन वैभव को प्रदर्शित करने में सक्षम है। इस अंचल में विस्तृत तालाबों की श्रृंखला नगर को मनोरम एवं जीवनोपयोगी बनाते थे। जिनके अस्तित्व आज भी देखे जा सकते हैं। जिला पुरातत्व संघ के सदस्य एवं वरिष्ठ आंचलिक पत्रकार रामलखन गुप्त ने इस अंचल के विभिन्न क्षेत्रों का दौरा करके अनेक ऐसे साक्ष्यों का अवलोकन किया है जो इस अंचल की वैभवशाली प्रचीन सभ्यता की पुष्टि में सहायक हैं।

त्योंथर नगर की प्रचीन वस्ती एक टीले पर स्थित है। यह टीला त्योंथर नगर पंचायत क्षेत्र की सामान्य धरातल से लगभग 10 मीटर उँचा है। त्योंथर में कई बार आई विनाशकारी बाढ़ में भी यह भू भाग कभी नही डूबा । जबकि इस बस्ती के चारों तरफ पानी भर जाता है । इसी टीले पर एक प्राचीन गढ़ी है, जो पहले स्थानीय प्रशासन के अधीन थी अब राज्य शासन द्वारा कोलगढ़ी के रूप में संरक्षित कर दी गई है। प्रस्तर निर्मित पुर्वाभिमुखी यह कोलगढ़ी दो मंजिला है। यदि चारों कोनो पर स्थित बुर्ज को भी जोड़ ले तो इसे तीन मंजिला कहा जा सकता है। समाचार पत्रों के माध्यम एवं जिना पुरातत्व संध की बैठक में इस लेखक की माँग पर 5 दिसम्बर 1999 को इस गढ़ी का पुरातात्विक सर्वेक्षण जिला पुरातत्व संध रीवा के तत्कालीन संग्रहाध्यक्ष एम.के.महेश्वरी पुरातत्ववेत्ता आर.आर. शर्मा, बी.एस. तिवारी एवं संघ के सदस्य रामलखन गुप्त (पत्रकार) आदि की एक टीम के द्वारा हुआ था। टीम के सर्वेक्षण में यह पाया गया कि वर्तमान गढ़ी की निर्माण अवधि 19वीं शताब्दी की है। गढ़ी के पृष्ठ भाग पर जो प्रस्तर लगा है वह किसी मंन्दिर के प्रस्तर प्रतीत होते हैं । इसी मंदिर के समीप दिकपाल प्रतिमा, सरस्वती प्रतिमा, महिषासुर मर्दिनी प्रतिमा ,शैव स्तम्भ एवं सूर्यनारायण आदि की खण्डित प्रतिमाएँ दिखी हैं, जो 11वीं शताब्दी की हैं। त्योंथर की कोलगढ़ी का वर्तमान में जो स्वरूप दिख रहा है वह (बघेल शासनकाल में) बहुतकुछ संभव है कि वेनवंशी राजाओं के द्वारा उसी स्थान पर एवं उसी गढ़ी का पुर्ननिर्माण कराया गया हो जो आदिवासी राजाओं की प्रचीन गढ़ी थी। त्योंथर की कोलगढ़ी को निश्चित रूप से समय समय पर समकालीन नरेशों द्वारा मरम्मत करायी जाती रही होगी जिसमें अंतिम स्वरूप पुरातत्ववेत्ता के अनुसार 19वीं की दिखती है। त्योंथर में स्थित कोलगढ़ी निश्चित रूप से यहाँ पर आदिवासी राजा की शासन व्यवस्था की उपस्थिति को सिद्ध करता है। समकालीन यहाँ के आदिवासी राजा निश्चित रूप से शक्ति सम्पन्न रहे होंगे। इस अंचल के नजदीक बहने वाली गंगा नदी के समीप रहने वाले निषाद राज नें चित्रकूट की ओर जाने वाली चक्रवर्ती अयोध्या नरेश की सेना जो भरत की अगुआई में गंगा पार होना चाहती थी उस सेना को चुनौती देने के लिए अपने योद्धाओं से कहा था – ‘‘बजवा दो रण का नक्कार, होने दो गंगा पार नही।‘‘

इस अंचल में मिल रहे शैल चित्रों से यह प्रतीत होता है कि यहाँ आदिवासी राजा रहे हैं। इस लेखक द्वारा मई 2002 में त्योंथर अंचल के पूर्वी भाग में स्थित ढ़खरा जंगल में घोड़दर पहाड़ के शैलचित्रों का अवलोकन किया था । वहाँ 100 से अधिक शैल चित्र बने हैं जो लाल गेरू रंग के हैं। इन शैलचित्रों में एक शैल चित्र ऐसा है जिसमें राजा और उसकी सेना का वर्णन होता है। चित्र में दिखता है कि एक मानव के सिर पर मुकुट लगा है संभव है कि वह समकालीन राजा या कबीले का सरदार हो। इसी राजा के साथ कतारबद्ध ऐसे लोग (सैनिक) लोग हैं जो तलवार जैसा हथियार लिए हुए है। चित्र में द्वारपाल भी दिखाया गया है जो हाथ में भाला लिए हुए है। द्वारपाल भाला को क्रास की स्थिति में रखकर द्वार सुरक्षा में तैनात प्रतीत होते है। ढ़खरा जंगल के भित्ति चित्र को यदि साक्ष्य मानें तो यहाँ आदिवासी राजा का राज्य मानव सभ्यता के विकास के साथ ही प्रारम्भ हो गया था। त्योंथर के समीप राजापुर गाँव है जो यहाँ राजा की उपस्थिति को सिद्ध करता है। इसी गाँव में छितरानाला के समीप एक प्राचीन मंदिर है जिसमें मोर्यकालीन ईंटों का उपयोग हुआ है। जनश्रुति एवं साहित्यिक साक्ष से यह पता चलता है कि यहाँ आदिवासी राजा के बाद बेनवंशी राजा गंगा तट झूंसी (प्रयाग) से त्योंथर आए और त्योंथर में अपनी राजधानी बनाया। त्योंथर में राजधानी बनाने एवं त्योंथर की गढ़ी को लेकर एक दन्त कथा यह भी कही जाती है कि त्योंथर की कोलगढ़ी में आदिवासी राजा का अधिकार था। झूंसी से बेदखल होकर आए वेन वंशी राजा को राज्य स्थापना एवं सुरक्षा की दृष्टि से किले की आवश्यकता थी किन्तु वे आदिवासियों को युद्ध में सीधे पराजित करने की स्थिति में नही थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने छलबल का सहारा लेते हुए गढ़ी में निवासरत आदिवासी राजा की कन्या से विवाह का प्रस्ताव रखा। वेनवंशी राजा की सेना बराती के वेश में किले में प्रवेश कर गई, और बरात के रास-रंग में मदहोश आदिवासी राजा को मारकर किले पर कब्जा कर लिया गया। इतिहासकार प्रो. बी.एल. पाण्डेय की माने तो यहाँ ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के समकक्ष लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पहले कोल राजाओं का विस्तार था। त्योंथर एवं सितलहा में कोल राजाओं ने गढ़ी बनवायी थी। समाचार पत्र में प्रकाशित डॉ0 महेश सिेह के एक लेख को माने तो यहाँ का अंतिम कोल राजा नागल कोल था जिसने यहाँ 10से 12 वर्ष तक राज्य किया था।

पुस्तक ‘विन्ध्य क्षेत्र का इतिहास’ ले. प्रो. राधेशरण के अनुसार त्योंथर में वेणुवंशियो के पूर्व कोलों का राज्य था। त्योंथर में कोलों के पश्चात पहला वेणुवंशी शासक संभवतः गनपत देव (गणपति शाह) था। जो सोलहवीं शदी ई. शेरशाह के समकालीन था। शेरशाह ने इन्हें झूंसी से हटाकर त्योंथर क्षेत्र दे दिया था। ‘‘झूंसी है षटकुल पर, गणपति नृप को धाय। बदशाह बकसत भयो, त्योंथर गढ़ को नाम।।‘‘ वेनवंशी राजा का झूंसी से पलायन होकर त्योंथर आना महा भारत करलीन भूरिश्रवा के विजायंठ की सुरक्षा की भवना से भी आधारित है। बेनवंशी के पहले त्योंथर अंचल में कोल राज्य की बात को इस दन्तकथा से भी पुष्टि मिलती है कि-गौतम क्षत्री अरैल (प्रयाग) के राजा थे जिनका शासन गंगा तट तक था। एक बार वे शिकार के लिए निकले और त्योंथर क्षेत्र में चले आये जहाँ किसी कोल कन्या से उनका प्रेम हो गया (संभव है कि वह कोल कन्या कोल राजवंश से सम्बन्धित रही हो) । जातीय विरोध हुआ तो कोल कन्या वही मायके में छोड दी गई । उसी कोल कन्या से एक पुत्र पैदा हुआ जिसे तमसा नदी में प्रवाहित कर दिया गया। वह बालक एक बसुहार को मिला। जिसने उसका लालन पालन किया । बहुत समय बाद गौतम राजा पुनः इस क्षेत्र में शिकार को निकले तो अचानक राजा की दृष्टि बसुहार पालित बचे पर पड़ी जिसकी रक्षा एक सर्प कर रहा था। राजा ने बच्चे को प्रतापी समझकर बसुहार को बुलाया। बसुहार द्वारा उस बच्चे के पालन-पोषण की कथा सुनकर राजा बड़ा प्रभावित हुआ । राजा ने बच्चे की जाति वेणु वंशी(वेणु बाँस) रख दिया और उसे तथा उसके पालक को झूँंसी पार का इलाका जीवन यापन के लिए दे दिया। झूंँसी में पलकर वेणुवंशी बड़ा प्रतापी हुआ जिस वंश के राजा गनपत शाह ने त्योंथर में कोलों की गढ़ी पर आकर अपना शासन किया। विभिन्न साक्षों से यह स्पष्ट होता है कि त्योंथर क्षेत्र में कोलों का राज्य था जो समकालीन आदिवासी राजकीय संस्कृति के विकास में सहायक था।
(रामलखन गुप्त)

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