माघ मेला : सिमटने लगा प्रयागराज संगम तट का माघ मेला

रामलखन गुप्त, चाकघाट। चाकघाट नगर सीमा से मात्र 40 किलोमीटर दूर भारतीय सनातन संस्कृति का प्रतीक तीर्थराज प्रयाग का पावन इस वर्ष 2024 का माघ मेला अब सिमटने लगा है। हर वर्ष एक माह तक लगने वाले विश्व के सबसे बड़े प्रयागराज गंगा तट के इस माघ मेले में जहां देश के कोने – कोने से लोग गंगा स्नान एवं एक माह के कल्पवास के लिए आते हैं, उस मेले का मुख्य समय पूष पूर्णमासी से माघ पूर्णमासी तक रहता है। एक माह तक लोग माघ के महीने में गंगा स्नान एवं संगम की रेतीली भूमि पर कल्पवास करते हैं। शासन प्रतिवर्ष लगने वाले इस इस माघ मेले एवं अर्ध कुंभ एवं 12 वर्ष पर लगने वाले पूर्ण कुंभ (जिसे अब महाकुंभ का नाम दिया गया है) उसकी तैयारी पर करोड़ों रुपए खर्च करके तीर्थ यात्रियों की व्यवस्था करती है।

एक रिपोर्ट के अनुसार इसी मेले में अंग्रेजों के शासनकाल में (सन 1882 में) महज 1154 रुपए 2 पैसे खर्च हुआ करते थे। मेले की आय से अंग्रेजों के शासनकाल में उस वर्ष 13040 रुपए 12 पैसे बचत हुई थी और उस पैसे से इलाहाबाद की लाइब्रेरी के लिए 3600/ रुपए, अल्फ्रेड पार्क के लिए ₹3000/ और डिस्पेंसरी के लिए 2600/ रुपए दिए गए थे। प्रयागराज के मारो मेमोरियल हाल जो अंग्रेजों द्वारा बनवाया था, उसमें 3590 रुपए 12 नए पैसे मेला की आमदनी से बचत करके जमा किया गया था। उस समय अंग्रेजों के शासनकाल में इस मेले पर मुंडन कराने के लिए भी टैक्स देना पड़ता था। कर्मकांड के लिए भी श्रद्धालु जनों से कर वसूला जाता था। मुंडन के लिए कर देने से बचने के लिए श्रद्धालु नैनी और फाफामऊ के नाइयों से मुंडन करवाते थे। मेले के प्रवेश द्वार पर पुलिस तैनात रहती थी जो बाहर से मुंडन करवा के आए श्रद्धालुओं के पांव और गर्दन को देखती थी।

प्रयागराज का यह मेला सनातन संस्कृति को जहां संबल प्रदान करती है वहीं सन 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को दहशत में भी डालती रही है। 1867 की एक रिपोर्ट में अंग्रेज अधिकारी ने अपने उच्च अधिकारी को रिपोर्ट भेजा था और उन्हें हमेशा यह भय बना रहता था कि कहीं प्रयागराज में भारी संख्या में आए साधु संत अंग्रेजों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र न रचें। एक रिपोर्ट में यह भी बताया गया है की कुंभ मेले में आने वाले प्रमुख लोगों में रीवा के महाराजा, बनारस, रामनगर, बेतिया, भागलपुर के राजाओं का भी पदार्पण हुआ था। पहले कभी प्रयागराज का यह मेला बंधवा से लेकर हनुमान मंदिर के आसपास एवं झूंसी किला के आसपास ही रहता था। अब इसका क्षेत्र काफी विस्तृत हो चुका है। यह मेला का विस्तार दिन प्रतिदिन लोगों की श्रद्धा भक्ति एवं बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण विस्तृत होता जा रहा है।

अगले वर्ष 2025 में इसी भू-भाग पर महाकुंभ का आगाज होगा। जिसमें न केवल देश बल्कि विश्व के अनेक देशों से गंगा को मानने वाले श्रद्धालु जन यहां पर आएंगे। सन 1867 में ब्रिटिश अधिकारी सी.रोबर्टसन एरी को सन 1867 में रिपोर्ट भेजी गई थी। उसने उसने लिखा था कि मेले में ज्यादा संख्या में आने वाले श्रद्धालुओं का मुख्य कारण फसल का अच्छी होना है। फसल अच्छी होने पर लोग ज्यादा संख्या में मेले में आते थे। रिपोर्ट में तो यह भी कहा गया है इस मेले में हिंदुस्तान के अलावा काबुल, कंधार, बलूचिस्तान से लेकर बर्मा तक के श्रद्धालु यहां आते थे। उस समय मेले की बढ़ती भीड़ एवं धार्मिक आस्था व राष्ट्रभक्ति की बलवती इच्छा से अंग्रेज सरकार भयभीत रहा करती थी। मेले के अंदर अस्त्र-शास्त्र ले जाने की मनाही थी, यहां तक की लाठी भी ले जान एक अपराध था। सिर्फ अपंग ही मेले के अंदर लाठी लेकर जा सकते थे। बुजुर्गों से भी लाठी छीन ली जाती थी। ब्रिटिश सरकार के इस रवैये से राजा महाराजा और बड़े जमींदार बहुत नाराज होते थे और ब्रिटिश सरकार से इसकी शिकायत भी करते थे। उस समय मेले के गोदान के लिए रखी गई बछिया पर भी कर देना पड़ता था, जिसे बछिया कर कहा जाता था। मेले में वसूल की जाने वाली श्रद्धालुओं के टैक्स को सरकार प्रयागराज में अंग्रेजी लाइब्रेरी, अस्पताल व पार्क आदि के पर खर्च करती थी। जो कि हिंदू जनों से वसूली गई राशि होती थी। प्रयागराज के गंगा तट पर लगने वाला एक माह का यह मेला सनातन संस्कृति को समेटे हर संकट और बाधाओ को पार करता हुआ अपनी परंपरा का निर्वहन करता आ रहा है। 2024 में इस माघ मेला का समय इसलिए भी लंबा हो गया क्योंकि मकर संक्रांति पहले पड़ गई। कुछ लोग मकर संक्रांति पर माघ मेला क्षेत्र में पहुंचे और कल्पवास की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। पूर्णमासी पर मेले का एक माह का कल्पवास पूरा हो जाएगा और लोग गंगा तट पर दान दक्षिणा करके पुनः नहीं उमंग नई आस्था के साथ अपने घर अपने परिजनों के बीच वापस पहुंचेंगे। गंगा का मेला जाति धर्म संप्रदाय से ऊपर उठकर सनातन संस्कृति एवं भारत की एकात्मता का मेला है ,जहां धर्म शिक्षा के साथ ही नैतिक कर्म एवं मानव मूल्य के क्षेत्र में अनेक उपक्रमों को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाता है। गंगा के क्षेत्र से निकलने वाली राष्ट्रीय चेतना समूचे विश्व को प्रभावित करती है। और आज भी गंगा यही कहती है कि “मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानो तो बहता पानी”। मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी, अचला सप्तमी आदि प्रमुख स्नान पर्व के पश्चातअब माघ मेला फिर से सिमटने लगा है अगले वर्ष के लिए। अगले वर्ष महाकुंभ के रूप में फिर सब लोग एकत्रित होंगे इस गंगा की पावन धरती पर।

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