रामलखन गुप्त, चाकघाट। अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है की राजनीति पैसे का खेल है। धन से सत्ता, सत्ता से धन का सर्कस खुलेआम देखा जाने लगा है। गत दिवस विधानसभा के निर्वाचन में मतदाताओं का रुझान प्रत्याशी की योग्यता,उसकी सामाजिक सेवा से ज्यादा उसकी आर्थिक उदारता पर रही कि कौन कितना शराब और नगदी बंटवा सकता है। प्रशासन की शक्ति के बावजूद भी लगभग प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में इसका खुला प्रयोग हुआ। प्रशासनिक योजना के तहत भले ही शराब की दुकान बंद रही, किंतु नशेड़ियों की व्यवस्था सामाजिक भाईचारे की तरह हर जगह उपलब्ध रही। यहां की स्थिति को देखें तो लोकतंत्र जो अब तक जातिवाद का शिकार रहा अब वह धनवाद के शिकंजे में भी फसने लगा है ।अब तो प्रत्याशी के चयन में भी उसकी आर्थिक हालात और आर्थिक उदारता को नजरअंदाज नहीं किया जा रहा है। अपने प्रत्याशी के पक्ष में अनेक संगठनों के लोग भी चुनाव प्रचार करने के लिए साधन सुविधा के लिए प्रत्याशी पर ही निर्भर रहे हैं । इस बार के चुनाव में मतदाताओं की जुबान कुछ ज्यादा ही लंबी दिखी। इसका प्रमुख कारण गत वर्ष ही क्षेत्र में संपन्न हुए ग्राम पंचायत एवं नगरी क्षेत्र का चुनाव रहा। ग्राम पंचायत एवं नगरी चुनाव में प्रत्याशियों का दायरा पंच, सरपंच, वार्ड पार्षद एवं नगर अध्यक्ष तक ही सीमित रहा इसलिए मतदाताओं को मतदान के बदले खुले आम धन-दान मिला। कुछ मतदाताओं ने तो कई प्रत्याशियों के उदारता का लाभ एक साथ उठाया। मुंह में लगी वही रकम के हिसाब से विधानसभा चुनाव में भी वही मांग होती रही। इस बार चुनाव में किसी की पार्टी के पास कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रहा जिससे मतदाता सीधे प्रभावित होता। भाजपा ने जहां अपने मंचों से विकास की बात कही वहीं कांग्रेस ने प्रदेश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार को आधार बनाया ।उससे भी बढ़कर यह चुनाव सीधे-सीधे धन के प्रलोभन पर लड़ा गया, जिसमें लाडली बहन को लाभान्वित करने, किसानों को सुविधा देने से लेकर सरकारी धन को किसी न किसी रूप में खुले आम लूटने की घोषणाएं समाज सेवा के नाम पर होती रही। महंगाई भ्रष्टाचार बेरोजगारी तो मुद्दा ही नहीं बन पाया। आजादी के बाद से राजनीतिक विचारधाराओं में अब तक गांधीवाद, लोहियावाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद, संप्रदायवाद ,जातिवाद जैसे वाद (विषय) से धन+वाद (धन का प्रयोग) खुले आम देखकर लगता है कि गरीबी, महंगाई,बेरोजगारी,स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, समानता, साम्मान आदि से ऊपर उठकर चुनाव में मतदाताओं को सीधे धन से प्रभावित किया जा सकता है, और यह खेल चुनाव में साफ-साफ दिखने लगा है। धन का प्रलोभन सीधे-सीधे राजनीतिक पार्टी भी दे रही है, प्रत्याशी भी दे रहा है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए धनवाद के प्रभाव पर चिंतक, विचारक एवं शीर्ष नेतृत्व को विचार करना होगा कि भारत देश में आजादी और स्वस्थ लोकतंत्र को कैसे बचाया जा सके।
