“सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं”
कभी – कभी इतिहास के पन्ने हमें एहसास करा देते हैं कि जो वक़्त गुजरा है, वो बेहद ही तकलीफ़देह और संघर्षों से भरा हुआ था। बड़े तो बड़े कैसे छोटे – छोटे बच्चों ने भी अपनी पहचान अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए अपनी जान की बाज़ी तक लगा दी थी। ऐसी गाथाएं हमें आने वाली पीढ़ियों के साथ – साथ स्वयं को भी सौपने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी कितनी भी विकसित हो जाये उसे याद रहे वो आज़ादी वो विकास उन्हें कैसे मिला है। आज वीर बाल दिवस है और क्या आपको पता है इसके पीछे की कहानी ?
गुरु गोविंद सिंह जी के चार पुत्र अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह थे। जिसमे से दो युद्ध के मैदान में लड़ते – लड़ते वीर गति को प्राप्त हुए और दो पुत्रों को बेरहम मुगलों ने सिर्फ इसलिए दीवार में चुनवा दिया क्यूंकि उन्होंने इस्लाम नहीं अपनाया।
वीरता की वो गाथा जो बच्चे – बच्चे को पढ़नी चाहिए
यह गाथा चार साहिबाजादों से जुड़ी वो सच्ची घटना है जिसे आप जितनी बार पढ़ेगें या सुनेंगे या जानेंगे, उतनी बार आप उत्साहित और रोमांचित हो उठेंगे। जानकारों की माने तो सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी की तीन पत्नियां थीं। पहली पत्नी आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में माता जीतो जी से 21 जून 1677 को गुरु गोबिंद सिंह जी का 10 साल की उम्र में विवाह हुआ। दोनों के 3 पुत्र हुए बाबा जुझार सिंह, बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह। 17 वर्ष की आयु में गुरु जी का दूसरा विवाह माता सुंदरी जी कराया गया, यह विवाह आनंदपुर में 4 अप्रैल 1684 को हुआ। माता सुंदरी जी से बेटा बाबा अजित सिंह हुए। फिर 33 वर्ष की आयु में 15 अप्रैल 1700 को गुरु जी ने माता साहिब देवन से विवाह किया था। इस तरह से गुरु जी की 3 शादियां हुई और उनसे उन्हें चार साहिबजादे हुए।
बहादुरी से भरी इस गाथा की शुरुआत तब से होती है, जब खालसा पंथ की स्थापना किए जाने के बाद मुगलों ने आक्रमण किया। साल 1704 में 20-21 दिसंबर को गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगल सेना से युद्ध लड़ने के लिए सापरिवार श्रीआनंदपुर साहिब का किला छोड़ दिया था और इसके बाद सरसा नदी पर गुरु जी का पूरा परिवार बिछड़ गया। जिसमे दो बड़े साहिबजादे तो गुरु जी (पिता) के साथ थे और दो छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह, माता गुजरी जी के साथ। दोनों छोटे साहिबजादे और माता गुजरी जी अकेले ही भटक रहे थे। न तो उनके साथ कोई सगा संबंधी था और न ही उनकी रक्षा करने के लिए कोई सैनिक।
नौकर ने किया विश्वासघात
बिना धोखेबाजों के कोई इतिहास पूरा नहीं होता। ऐसे ही इस गाथा में एक गद्दार नौकर का भी जिक्र है जिसका नाम गंगू था। जब माता गुजरी छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह के साथ रास्ते में भटक रहीं थीं तो वो अचानक ही रास्ते में मिल जाता है और माता गुजरी जी से अपने घर चलने का आग्रह करता है। गंगू जो कि एक वक्त पर गुरु महल की सेवा करता था, तो उस पर भरोषा करना आसान था । लेकिन गंगू के लालच ने सबकुछ ख़त्म करके रख दिया। कहते हैं कि गंगू ने विश्वासघात करते हुए घर में ठहरे माता जी और दोनों साहिबजादों की जानकरी वजीर खां को पहुंचा दी थीं। और इस खबर के बदले वजीर खां ने गंगू को सोने की मोहरें भी भेंट की थीं।
जिसके बाद वजीर खां के सैनिकों ने माता जी और दोनों साहिबजादों को गिरफ्तार कर लिया और अपने साथ ले गए। तब बाबा जोरावर सिंह जी 7 साल के थे और बाबा फतेह सिंह जी 5 साल की आयु के। कहते हैं अपनी बात मनवाने के लिए तीनों को ठंडे बुर्ज में बिना किसी कपडे के गिरफ्तार करके रखा गया। जरा सोचिए कि खून जमा देने वाली ठंड में उन नन्ही जान पर क्या कहर बरपा होगा। बर्बरता कि सारी हदें मुग़ल शासकों ने पहले ही पार कर राखी थीं। फिर सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश कर दिया गया। जहां उन्हें इस्लाम मानने अपनाने को कहा गया। कहा जाता है कि सभा में पहुंचते ही बिना किसी झिझक के दोनों ही साहिबजादों ने डटकर और जोर – ज़ोर से “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” का जयकारा लगाया था।
उनके निडर और आत्मविश्वास से भरे चेहरों को देख कर सभा में बैठा प्रत्येक व्यक्ति दंग रह गया क्योंकि माहौल ऐसा था कि वजीर खां के सामने ऐसी हिमाकत पहले किसी ने ना कि थीं जैसी हिम्मत दोनों साहिबजादों ने दिखाई थी। सभा में मौजूद एक मुलाजिम ने दोनों साहिबजादों को कहा कि वे वजीर खां के सामने सर झुकाएं और सलाम करें, इस पर नन्हें बालकों ने जो कहा वो किसी की भी हिम्मत को हजार गुना कर सकता है। दोनों साहिबजादों ने सर ऊंचा किया और जवाब में कहा कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी और के आगे सर नहीं झुकाते हैं। ऐसा कर हम अपने शहीदी को जाया नहीं होने दे सकते हैं। हमने किसी के सामने सर को झुकाया तो अपने दादा को क्या मुंह दिखाएंगे। हालाँकि वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को डरा – धमका के, बहला – फुसला के, लालच दे के भी पूरी कोशिश कर ली लेकिन नन्हे साहिबजादों ने अपने धर्म के लिए वजीर खां को दुत्कार दिया।
वजीर खां के पक्ष में बात नहीं बनी तो दिखाई क्रूरता
कहते हैं तीन दिनों तक वजीर खां, साहिबजादों के सामने इस्लाम अपनाने के लिए गिड़गिड़ाता रहा, सारे तरीके आजमा लिए लेकिन वजीर खां को मुँह कि खानी पड़ी। जब वजीर खां के पक्ष में बात नहीं बन पाई तो उसने क्रूरता दिखाई और फिर जो हुआ वो दिल को दहला देने वाला था। सुचानंद दीवान की तरफ से नवाब को उकसाया गया और कहा गया कि यह सांप के बच्चे हैं इनका कत्ल करना ठीक होगा और फिर काजी को बुलाया गया जिसने दो नन्हीं सी जान को दीवार में चुनवा देने का फतवा जारी कर दिया। दोनों साहिबजादों को जिंदा ही दीवारों में चुनवाया गया। कहते हैं कि एक तरफ दीवार खड़ी की जा रही थी तो दूसरी तरफ दोनों साहिबजादे ‘जपुजी साहिब’ का पाठ कर रहे थे और जब दीवार पूरी तरह से चुन दी गई तो भीतर से जयकारा लगाने की आवाज़ें मौजूद लोगों द्वारा साफ-साफ सुनी जा रहीं थीं। कहते हैं वजीर खां के अंदर इतना डर बैठ गया था कि दिवार चुनने के थोड़ी देर बाद ही वजीर खां ने दीवार को तुड़वाया ताकि देख सके की साहिबजादें बचे तो नहीं हैं।
कहा जाता है कि दोनों ही साहिबजादों की सासें चल रही थी , लेकिन वजीर खां इतना डर गया था कि दोनों ही साहिबजादों की जान जबरन ले ली गयी। माता गुजरी जी को जब साहिबदाजों की शहीदी के बारे पता चला तो उन्होंने गर्व किया फिर इस शहीदी के लिए अकाल पुरख को धन्यवाद कहा और अपने प्राण भी त्याग दिए।
इस शहीदी कि ख़बर जब गुरु गोबिंद सिंह जी को हुई तो गुरुजी ने औरंगजेब को एक चिट्ठी ( जफरनामा ) लिखी जिसमें गुरु जी ने लिखा कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो चुका है।
गुरु गोविंद सिंह जी के चार पुत्र में से दो युद्ध के मैदान में लड़ते – लड़ते शहीद हुए और दो को मुगलों ने दीवार में चुनवा दिया था। ऐसे साहिबजादे अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह व फतेह सिंह ने केसरिया की रक्षा में हंसते-हंसते अपना बलिदान दे दिया। गुरु जी के चार साहिबजादों कि यह शौर्य गाथा , वीरता और धर्म के प्रति अपने समर्पण को लेकर युगों – युगों तक लोगों के लिए प्रेरणा का श्रोत बनती रहेगी।