मध्य प्रदेश की ग्राम पंचायतों में होने वाले व्यापक स्तर के भ्रष्टाचार की निगरानी और मॉनिटरिंग करने की जिम्मेदारी उच्च पद पर बैठे हुए सीईओ जिला पंचायत के पास होती है। जाहिर है यह शक्ति अभी हाल ही में पिछले वर्ष 2022 में पंचायत अधिनियम में हुए 1 संशोधन के बाद धारा 89, 40 और 92 की सुनवाई की शक्ति कलेक्टर से हटाकर सीईओ जिला पंचायत को मध्य प्रदेश सरकार द्वारा दी गई है। लेकिन जहां कलेक्टर के न्यायालय में कुछ हद तक कार्यवाहियां हो जाती थी और जैसा कि डॉक्टर इलैयाराजा टी के कार्यकाल के दौरान ताबड़तोड़ कार्यवाही देखने को भी मिली वहीं डॉक्टर इलैयाराजा टी के रीवा से जाने के बाद ऐसा लगता है जैसे धारा 40/92 की कार्यवाहियों में जैसे ग्रहण लग गया है। न तो पूर्व के जिला पंचायत सीईओ ने अपने पद पर रहते एक भी निर्णय इन भ्रष्टाचार के मामलों में सुनाया और न ही नए जिला पंचायत सीईओ ने अब तक कोई निर्णय लिया है। ऐसा लगता है जैसे पंचायतीराज व्यवस्था में अनिर्णय की स्थिति निर्मित हो गई है। अब हो क्या रहा है कि बस हर सप्ताह जांच पर जांच होती जा रही है। इससे न केवल विभागीय इंजीनियर भी परेशान हैं बल्कि शिकायतकर्ता भी परेशान हैं। जिन मामलों में पहले ही वसूली बन चुकी है और विभाग के वरिष्ठ कार्यपालन यंत्री और वरिष्ठ सहायक यंत्रियों ने अपना जांच प्रतिवेदन दे दिया है अब उन मामलों में मात्र दोषी सरपंच सचिव के कहे जाने पर जांच पर पुनः जांच पर जांच की जा रही है। इससे मध्य प्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम की धारा 89, 40 और 92 की सुनवाई की शक्ति सीईओ जिला पंचायत को देने पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है। सवाल यह है कि एक जांच हुई जिसमें इंजीनियर ने पंचायती कार्यों में दोष पाया तो फिर सरपंच सचिव ने शिकायत की कि हमारी गलत जांच और वसूली हुई तब इस पर एक पुनः जांच हो गई। दुबारा सत्यापन और जांच तक तो मामला सही है लेकिन फिर यदि 4 या 5 से अधिक बार जांच हो रही है तो उसका क्या मतलब समझा जाए?
मध्यप्रदेश के सीईओ जिला पंचायतों की क्षमता और कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह
अब समाज में लोग यह भी सवाल करने लगे हैं कि क्या सीईओ जिला पंचायत जो कि उसी विभाग का एक वरिष्ठ अधिकारी होता है उसको अपने ही विभाग के कर्मचारियों के दोष की सुनवाई करने की शक्ति दी जानी चाहिए और क्या यह नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के अनुरूप होगा? इस प्रकार अब नए सवाल खड़े हो गए हैं जिस पर चर्चाएं होने लगी है। ग्राम पंचायतों की स्थित तो सबको पता ही है कि किस प्रकार व्यापक स्तर का भ्रष्टाचार है और अधोसंरचना और ग्रामीण विकास के लिए आने वाली राशि का किस हद तक बंदरबांट किया जा रहा है यह किसी से छुपा नहीं है।
इसी मामले को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता शिवानंद द्विवेदी जो कि की निरंतर ग्रामीण विकास पर अपनी नजर बैठाए हुए हैं और पंचायतों में हो रहे व्यापक भ्रष्टाचार को लेकर एक लंबे अरसे से मुहिम चलाए हुए हैं अब सवाल खड़ा किए हैं और मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर कहा है कि मध्य प्रदेश पंचायत राज अधिनियम की धारा 89, 40 और 92 की शक्ति समस्त जिलों के जिला पंचायत मुख्य कार्यपालन अधिकारियों से छीन कर वापस जिला दंडाधिकारी को दे दी जानी चाहिए।
धारा 89 और 40/92 की सुनवाई करने की शक्ति सीईओ जिला पंचायत से हटाकर जिला दंडाधिकारी को दिए जाने की मांग
उन्होंने कहा की मप्र पंचायती राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम की धारा 89, 40 और 92 की शक्ति मप्र में पंचायत अधिनियम में संशोधन उपरांत मप्र के समस्त सीईओ जिला पंचायत को सौंप दी गयी है जो सर्वथा अनुचित है. ग्राम पंचायतों जनपद पंचायतों में जाँच और निगरानी के साथ कार्यों की मॉनिटरिंग और पंचायती व्यवस्था के सुपर विज़न के लिए मुख्य कार्यपालन अधिकारी जिला पंचायत रखे गए हैं. सरपंच सचिव और इंजिनियर और पंचायत विभाग से जुड़े हुए अधिकारी कर्मचारी सीईओ जिला पंचायत के अधीन में रहते हैं. सुबह से शाम तक यह कर्मचारी अधिकारी सीईओ जिला पंचायत के अधीन ही काम करते हैं. इसका मतलब यह हुआ की इनके अच्छे और भ्रष्ट दोनों कार्यों की जानकारी सीईओ जिला पंचायत के पास रहती है. जब गबन, अनियमितता और भ्रष्टाचार की शिकायतें नागरिकों द्वारा की जाती हैं तो उसकी जाँच यही जिला सीईओ करवाते हैं. श्री द्विवेदी ने आगे लिखा है कि जांच में दोषी पाए जाने पर यदि जजमेंट की शक्ति भी उसी सजातीय विभाग और संस्था के अधिकारी अर्थात सीईओ जिला पंचायत को दे दी जाती है तो यह न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के बिलकुल विपरीत होगा.
जिनके साए और संरक्षण तले पंचायतों में भ्रष्टाचार पला बढ़ा अब वही बन गए हैं निर्णायक
बताया गया कि यदि पंचायतों में पहले भ्रष्टाचार और अनियमितता हुई इसका मतलब जिला जनपद के वरिष्ठ अधिकारियों ने पर्याप्त मौक़ा दिया की खूब जमकर भ्रष्टाचार हो तब जाकर भ्रष्टाचार हुआ अन्यथा यदि जिम्मेदारी इमानदारी और निष्ठा से निगरानी और मोनिटरिंग होती तो प्रदेश की ग्राम पंचायतों में इतना व्यापक भ्रष्टाचार नहीं होता. अब यदि भ्रष्टाचार होते देखा गया और उसे प्रोत्साहित किया गया फिर यदि जांच में दोषी पाया गया तो इसकी जिम्मेदारी किसकी है? जाहिर है इसकी जिम्मेदारी भी सीईओ जिला और जनपद की है. अब यदि वही सीईओ जिला पंचायत जिसने भ्रष्टाचार और अनियमितता होते देखा और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर भ्रष्टाचार करवाया अब यदि वही मामला जब पंचायत अधिनियम की धारा 89 की सुनवाई (और तत्पश्चात धारा 40/92) के लिए सीईओ जिला पंचायत के पास आता है तो वह जनता के साथ क्या न्याय करेंगे? क्या इसका तात्पर्य यह नहीं हुआ की मप्र सरकार द्वारा धारा 89 कि सुनवाई की शक्ति कलेक्टर जिला से हटाया जाकर सीईओ जिला पंचायत को दिया जाना अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है? क्या इसका मतलब यह नहीं समझा जाना चाहिए की सरकार ग्राम पंचायतों में गरीब जनता और ग्रामीणों की मूलभूत बेसिक सुविधाओं सड़क पानी आवास अधोसंरचना विकास के लिए जनता के टैक्स से दिए जाने वाले पैसे को बंदरवाट करवाने की व्यवस्था सीईओ जिला पंचायत को धारा 89, 40 और 92 की शक्ति देकर करना चाह रही है?
अपवाद को छोड़कर एग्जीक्यूटिव बॉडी कभी भी एक अच्छे न्यायकर्ता की भूमिका नहीं निभा सकती – शिवानंद द्विवेदी
उन्होंने कहा कि मुख्य कार्यपालन अधिकारी जिला पंचायतों को धारा 89, 40 और 92 के मामलों में न्याय अधिकारी बनाया जाना पूरी तरह से नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है. और किसी भी हाल में भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वालों और उसे पालित/पोषित करने वालों को सेमी-जुडिशियल अथवा क्वासी-जुडिशियल अथवा एग्जीक्यूटिव जुडिशियल पॉवर न दिया जाय. शिवानंद द्विवेदी का स्पष्ट कहना है कि जिनके साए तले और जिनके संरक्षण में भ्रष्टाचार पालित/पोषित हो रहा है वह कभी भी अच्छे न्यायकर्ता नहीं बन सकते हैं. यह केवल रीवा जिले में ही नहीं मप्र के समस्त जिलों में लागू होता है. उन्होंने कहा कि वह पंचायती व्यवस्था एवं ग्राम स्वराज को मजबूत करने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में काम कर रहे हैं इसलिए मुख्यमंत्री को ईमेल कर ग्राउंड रियलिटी से अवगत कराकर अपना नैतिक दायित्व निभाया है। बताया गया कि कलेक्टर को पूरे जिले का प्रभार रहता है अतः कलेक्टर न्यायालय में धारा 89 की सुनवाई की शक्ति होने से कम से कम इतनी अपेक्षा की जाती है की कलेक्टर चूँकि सीधे पंचायतों से नहीं जुड़े होते हैं अतः न्यायिक दृष्टि से वह सीईओ जिला पंचायत से बेहतर/रिलाएबल न्याय कर सकते हैं. लेकिन उनका कहना है कि सीईओ जिला पंचायत के पास बिलकुल ही धारा 89 और 40/92 शक्तियां नहीं दी जानी चाहिए यह नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध होगा. ( शिवानंद द्विवेदी , सामाजिक कार्यकर्त्ता )