डभौरा स्टेशन : अपने काम से जीते जनता का दिल भला नाम बदलकर क्या होगा

चाकघाट। अपने काम से नहीं जीत पाए जनता का दिल तो क्या नाम बदलकर उन पर प्रभाव डाला जा सकता है? रीवा जिले का सरहदी डभौरा ग्राम जिसे कुछ समय पहले ही नए-नए नगर परिषद होने का अवसर मिला है, उस नगर के नाम परिवर्तन को लेकर न केवल डभौरा क्षेत्र बल्कि तराई अंचल के लोगों में खुला आक्रोश देखने को मिल रहा है।डभौरा ग्राम आजादी के पहले से ही एक महत्वपूर्ण ग्राम था। जिसकी चर्चा 18 57 के ग़दर में भी होती रही है। अंग्रेजों के शासन काल में यहां रेलवे लाइन बिछाई गयी। उस समय भी रीवा राजघराना उत्साह पूर्वक इस अंचल के विकास के बारे में योजना बना सकता था जो नहीं बना पाया। कहा जाता है कि महाराजा गुलाब सिंह ने बांदा जिले के बॉर्डर पर होने के कारण डभौरा की व्यवसायिक मंडी को विकसित किया। उस समय यदि महाराजा चाहते तो इस ग्राम को अपने नाम पर या अपने पूर्वजों के नाम पर बिना विरोध के घोषित कर देते किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और इस ग्राम को डभौरा ही रहने दिया। मिली जानकारी के अनुसारआजादी के 100 साल पहले से लेकर अब तक इसे डभौरा के नाम से ही जाना जाता है। हिंदुस्तान के तमाम लोगों की जुबान में भी है कि रीवा जिले का डभौरा महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन है। रीवा राजघराने के युवा विधायक अपने ही नाम पर नष्टिगवां को दिव्यागवां बना दिये। अब वे अपने पूर्वजों के नाम पर डभौरा नगर को गुलाबगंज बनाने की कल्पना की और सरकार को प्रस्ताव भेजकर जिला कलेक्टर के माध्यम से डभौरा को गुलाबगंज के रूप में अधिसूचना जारी करवा दी। यदि उन्हें अपने पूर्वजों के नाम की इतनी अधिक चिंता थी तो वे रीवा महाराजा के वंशज हैं उनके पास धन की कमी नहीं है वे अपने पूर्वजों के नाम से कोई ऐसी बड़ी संस्था खुलवा देते जिससे देश ही नहीं विश्व में भी उनका नाम होता किन्तु उन्होंने ऐसा न करके केवल नगर का नाम बदलकर अपने पूर्वज को जनता का दिल बिठाने का प्रयास किया है जो जनता के विचारों से ठीक नहीं है।रीवा राज्य के भीतर ही 1857 के दौर में अंग्रेजों से मोर्चा लेने का काम डभौरा के क्रांतिकारी दीक्षित परिवार किया था और अपने प्राणों की आहुति दी थी। डभौरा के रणजीत राय दीक्षित ने प्रसिद्ध क्रांतिकारी ठाकुर रणमत सिंह के साथ उनके बागी साथियों को संरक्षण दिया। अंग्रेजों से युद्ध करते हुए अपने प्राण देकर क्रांतिकारियों का उत्साह बढ़ाया। अपने इलाके में अंग्रेजों को पपरास्त करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

डभौरा के समीप मूडकटा के जंगल आज भी अंग्रेजों से हुए युद्ध में क्रांतिकारियों के शौर्य के प्रतीक माने जाते हैं। दीक्षित परिवार ने अंग्रेजों से लोहा लिया उस समय भी अंग्रेजों का सहयोग कहीं न कहीं रीवा राजघराने से होता रहा है। रीवा राजघराने के संरक्षण में बैठा अंग्रेजों का पोलिटिकल एजेंट यहां के क्रांतिकारियों के दमन का कार्य कर रहा था। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति को दबाने के लिए रीवा राजघराने के द्वारा अंग्रेजों को रियायती सैनिक दिए गए थे। अंचल के विधायक को यदि डभौरा का नाम बदलने का ही शौक था तो वे क्रांतिकारी रणजीत राय दीक्षित के नाम पर उस गांव का नाम रखते तो जनता के दिल में खुशी होती और आजादी के अमृत महोत्सव में क्रांतिकारियों का स्मरण सदा सर्वदा के लिए अमर हो जाता। किंतु अपने पूर्वज के नाम पर किसी नगर के नाम को बदल कर उसे अमर नहीं किया जा सकता। यदि वे अपने पूर्वजों को इतिहास के पन्नों में अमर करना चाहते हैं तो अब भी समय है कि वे कोई ऐसी संस्था का डभौरा में निर्माण कराएं जिससे समूचा विश्व आने वाले समय में महाराजा को याद करता रहे। अब राजनैतिक महत्वाकांक्षा का खेल आजाद भारत में जन भावना के विरुद्ध कतई नहीं होना चाहिए। जब काम से नहीं जीता जा सका जनता का दिल तो भला नाम बदलकर कैसे जीता जा सकता है जनता का दिल। ( रामलखन गुप्त )

Leave a Comment

error: Content is protected !!

शहर चुनें

Follow Us Now

Follow Us Now